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________________ धनमित्र सेठकी कथा। ५५ सुन्दर युवती, जो उर्वशीको भी लज्जित करती थी, मिली । वह धनमित्रसे बोली___प्यारे ! मैं तुम्हारी बहुत प्रशंसा सुना करती हूँ । आज भाग्यसे मुझे तुम्हारे दर्शन भी होगए । मेरा जीवन आज सफल हुआ । मैं जैसा सुनती थी, उससे भी कहीं बढकर मैंने तुम्हें पाया। प्यारे ! अब तुम मुझे अपनी जीवन-संगिनी बना कर मेरा मनोरथ सफल करो, और मेरी बहुत कालकी साधको मिटाओ । इस प्रकार प्रतिदिन सबेरे उठ कर मंत्र-जाप, स्तवन-पाठ आदिके द्वारा अपनी आत्माको व्यर्थ कष्ट पहुँचानेसे कोई लाभ नहीं है । मेरे पास अटूट धन है । अपनी सैकड़ों पीढ़ियाँ उसे बैठी बैठी खाया करेंगी तब भी उसका छोर नहीं आनेका । उसे भोगिए और जीवन सफल कीजिए । बेचारे लोगोंको स्वार्थी साधुओंने खूब ही अपने मायाजालमें फँसा रक्खा है-ठग रक्खा है। वे उन्हें परलोक और पापका भय दिखा दिखा कर सब बातोंसे वंचित रखते हैं। सच तो यह है कि न पाप है और न पुण्य है, न परलोक है और न आत्मा है । इस शरीरको छोड़ कर कोई जुदा आत्मा नहीं है जिसके लिए सब सुख-सब आनन्द पर पानी फेर कर दुःख उठाया जाय ! बेचारे लोगोंको इन भिखमंगोंने बहका रक्खा है । इस कारण वे पाप-पुण्यसे डर कर सदा दुःख ही दुःख उठाया करते हैं। ___ युवतीके ऐसे पाप-पूर्ण वचनोंको सुन कर बेचारा धनमित्र काँप उठा। उसने अपने दोनों कानोंको हाथोंसे मूंद कर कहा-पापिनी ! ऐसे दुर्गतिमें लेजानेवाले वचन कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? तू नहीं जानती, कि मुझे परस्त्री-त्यागवत है और तू परस्त्री है । तुझे तो छूलेनेसे भी मुझे महापाप लगेगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि बड़े बड़े राजे महाराजे इसी परस्त्रीके पापसे नरक गएं हैं ? रावण तो इसी पापके
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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