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भक्तामर-कथा।
हे ईश ! सर्व जगके तुझको नमूं मैं,
मेरे भवोदधि विनाशि, तुझे नमूं मैं ॥ नाथ ! आप त्रिभुवनके दुःखोंको नाश करनेवाले हैं, पृथ्वीके एक अत्यन्त सुन्दर भूषण हैं, तीनों लोकोंके ईश्वर हैं, संसाररूपी समुद्रके सुखानेवाले हैं-अर्थात् संसारका नाश केर भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करानेवाले हैं, इसलिए आपको नमस्कार है ।
धनमित्र सेठकी कथा। इस श्लोकके मंत्रकी आराधनासे धन-सम्पत्ति प्राप्त होती है । इसके प्रभावकी और धर्म पर विश्वास करानेवाली कथा इस प्रकार है:
पटनामें एक धनमित्र नामका सेठ रहता था । पापके उदयसे दरिद्रता उसका पीछा न छोड़ती थी। एक दिन वह गुणसेन मुनिके पास गया और उन्हें प्रणाम कर उसने पछा-स्वामी! कोई ऐसा उपाय बतलाइए जिससे मैं इस दरिद्रता पिशाचिनीसे अपना पिण्ड छुड़ा सकूँ। . . मुनिने उससे कहा-माई ! लक्ष्मीका होना न होना अपने पुण्य-पापके
आधीन है। पर इतना जरूर है कि धर्म-सेवनसे पाप नाश होकर पुण्यका बंध होता है । वही पुण्य लक्ष्मीकी प्राप्तिका भी कारण है। इसलिए तुम भक्तामर स्तोत्रकी सदा पवित्र भावोंसे आराधना और 'तुभ्यं नमस्त्रि' इस श्लोकके मंत्रका नित्य ही प्रातःकाल ऋषभनाथके
चैत्यालयमें जाप किया करो । इसके साथ यह बात सदा याद रखना कि परस्त्रियोंको अपनी माता-बहिनके समान मानना। कभी चित्तमें विकार उत्पन्न न होने देना । नहीं तो सिवा हानिके और कुछ हाथ, न लगेगा। _ मुनिके उपदेशसे धनमित्रने वैसा ही करना शुरू किया । उसे मंत्रकी आराधना करते करते कोई छह महीना बीत गए । एक दिन धनमित्र अपने घरसे जिन-मंदिरको जा रहा था। रास्ते उसे एक बहुत.