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भक्तामर-कथा।
वसन्त आया । वनमें फूल फूलने लगे । उनकी. दिल लुभानेवाली सुगन्ध अपना साम्राज्य विस्तृत करने लगी। चारों ओरसे मत्त भैरोंके झुण्डके झुण्ड आ-आ कर अपने राजाधिराज वसन्तको बधाइयाँ देने लगे । कोकिलाओंने वारांगनाओंका वेष लिया । सार यह कि जिधर
आँख उठा कर देखो उधर ही सिवा राग-रंगके कुछ नहीं दिखाई पड़ता था।
ऐसे अपूर्व राग-रंगके समय जितशत्रु उससे कैसे वचित रह सकते थे । अतएव वे भी अपनी सब रानियोंको लेकर वसन्तकी बहार लूटनेके लिए अपने स्वर्ग-सदृश सुन्दर उपवनमें गए । वहाँ वे रानियोंके साथ बड़े आनन्दके साथ क्रीडा-विलासका सुख भोग रहे थे कि, इतनेमें एक पापी व्यन्तरने उनके सब आनन्दको-सब सुखको किरकिरा कर दिया। एक साथ सब रानियोंके शरीरमें प्रवेश कर वह उन्हें बेहद्द कष्ट पहुँचाने लगा। यह देख कर राजा बड़े दुखी हुए । उन्होंने उसी समय बड़े बड़े मांत्रिकों और तांत्रिकोंको बुलाया । बहुत कुछ प्रयत्न किया गया, पर किसीसे रानियोंको आराम न पहुँचा । देव-दोष बहुत ही कठिनतासे दूर होता है। ___ यह सब हो ही रहा था कि एक मनुष्यने कहा-महाराज! शान्तिकीर्ति मुनि इस विषयके अच्छे जाननेवाले हैं । आप उन्हें बुलवा कर महारानियोंको दिखलाइए । असंभव नहीं कि उनके द्वारा बहुत शीघ्र ये सब उपद्रव मिट जायें। यह सुन कर राजा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसी समय अपने प्रतिष्ठित राजकर्मचारियोंको भेज कर जिनमन्दिरसे उन्हें बुलवाया।
मुनिराज आए । राजाने उन्हें सब हाल कह सुनाया । मुनिराजने यह कह कर कि, कोई चिन्ताकी बात नहीं, एक जलका लोटा मँग