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भक्तामर - कथा ।
भारतवर्ष के प्रसिद्ध अवन्ति प्रान्तमें उज्जयिनी एक बहुत सुन्दर नगरी है। उसमें बड़े बड़े धनी रहते हैं । उनके पास ऐसे ऐसे अमोल रत्न हैं कि जिनकी सानीके रत्नोंका मिलना संसारमें दुर्लभ है । उसमें सेठ-सांहूकारोंके बड़े बड़े ऊँचे और सुन्दर महल हैं। उन पर बहुमूल्य वस्त्रोंकी ध्वजाएँ शोभा दे रही हैं ।
उज्जयिनीके बाहर वनमें एक चण्डिका देवीका मन्दिर है । उसमें जीवोंकी बलि बहुत दी जाया करती है । इस कारण वह कहीं खून, कहीं मांसके ढेरों, कहीं हड्डियों, और कहीं मरे हुए पशुओं से सदा व्याप्त रहता है । उसे देखते ही चित्त घबरा उठता है, उल्टी होने लगती है ।
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एक दिन शुद्ध चारित्रके धारक आर्यनन्दी मुनि विहार करते हुए उधर आ गए । संध्या हो जानेके कारण वे उस मन्दिर में एक ओर ध्यान करने को बैठ गए । उन्हें अपने मन्दिर में ध्यान करते हुए देखकर देवीने क्रोधसे उत्तेजित होकर मुनिको सैकड़ों दुर्वाक्य कहे और उन पर वह घोरसे घोर उपसर्ग करने लगी । इसके बाद उसने सिंह, व्याघ्र, सर्प, आदि भयंकर जीवोंकी सृष्टि कर मुनिको खूब डराया । उनपर वह तलवार चलानेको उद्यत हुई । वज्र गिराना उसने शुरू किया, घनघोर काले मेघोंकी घटाएँ दिखलाईं, और प्रचण्ड वायु बहाया । अपनी शक्तिभर उपद्रव करनेमें उसने कोई कसर नहीं की; परंतु तब भी वह मुनिराजको विचलित न कर सकी । कारण वे भक्तामर की आराधना कर रहे थे, इसलिए जिनधर्म-भक्त देवीने आकर उपद्रवोंसे उनकी रक्षा करली । चण्डिका हार खाकर स्वयं मुनिराजके पाँवों में पड़ी और अपराधकी क्षमा करा कर बोली- भगवन् ! आज्ञा कीजिए, मैं पालनेके लिए तैयार हूँ ।