SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आर्यनन्दी मुनिकी कथा। ४७ भक्तामर स्तोत्रकी आराधनासे मतिसागर मुनिने जो धर्मकी प्रभावना की उसे देख कर भव्यजनोंको भी इस पवित्र स्तवनकी आराधनामें मन लगाना चाहिए। कारण 'धर्मो भवति कामदः' अर्थात् धर्म मनचाही वस्तुका देनेवाला है। त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः॥२३॥ हिन्दी-पद्यानुवाद । योगी तुझे परम पूरुष हैं बताते, • आदित्यवर्ण मलहीन तमिस्रहारी। पाके तुझे, जय करें सब मौतको भी, __ है और ईश्वर नहीं वर मोक्ष-मार्ग॥ नाथ ! तपस्वी जन आपको परम पुरुष कहते हैं, और अन्धकारसे परे होनेके कारण अथवा अन्धकार अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मोंके नष्ट हो जाने पर केवलज्ञान अवस्थामें भामण्डलसे देदीप्यमान होनेके कारण सूर्यके समान तेजस्वी कहते हैं; आपहीको अमल-राग-द्वेषादि कर्म-मल-रहित होनेसे निर्मल कहते हैं: और मन, वचन, कायकी शुद्धिसे आपकी आराधना कर वे मृत्यु पर विजय लाभ . करते हैं। नाथ ! सच तो यह है कि आपको छोड़ कर मोक्षका और कोई श्रेष्ठ मार्ग ही नहीं है। आर्यनन्दी मुनिकी कथा । इस श्लोकके मंत्रकी जो पवित्र भावोंसे आराधना करते हैं, उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती । इसकी कथा इस प्रकार है
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy