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भक्तामर-कथा ।
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हैं, जो वास्तविक देवपनेके सर्वथा योग्य हैं । संसारके और और देवोंमें कोई तो रागी है, कोई द्वेषी है, किसीके हाथोंमें शस्त्र है, कोई भयंकर है. जिसे देखकर भय लगता है; और कोई कर हैं जो सदा जीवोंकी बलि लिया करते हैं । पर जिनदेवमें ऐसी एक भी बात नहीं है । वे परम वीतराग और शांत हैं । संसारी जीव सदा आकुलता में फँसे रहते. हैं, इसलिए उन्हें ऐसे देवोंके पूजने की आवश्यकता है जो उन्हें आकुलतासे छुटा कर शान्ति देनेवाले हों । पर संसारी जीवोंकी आकुलता अन्य देवतागण दूर नहीं कर सकते; क्योंकि वे स्वयं ही आकुल हैं। जो स्वयं भूखों मरता है वह दूसरोंकी भूख कैसे दूर कर सकता है ? इन बातोंको देख कर कहना पड़ता है कि आकुलता मिटाकर उन्हें शान्ति प्रदान करनेवाले परम वीतराग और शान्त जिनदेव ही हैं; और वे ही देवों के देव हैं । इसके सिवाय ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी उन्हें भक्ति से सदा पूजते हैं । इसलिए तुम्हें जिनधर्म स्वीकार करके जिनदेवके सेवक बनना चाहिए । इसीमें तुम्हारा कल्याण है ।
मुनिका उपदेश सुनकर वे लोग बोले- महाराज ! यह बात तो आपने बड़े आश्चर्यकी कही कि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि बड़े बड़े पुरुष भी जिनदेवको प्रणाम करते हैं। हमें इस पर विश्वास नहीं होता । यदि आप इस बातको सत्य करके दिखला देंगे तो हम सब लोग भी फिर जिनदेवको ही मानने लगेंगे। हमें फिर आप जैनी ही समझिए ।
तब मुनिराजने भक्तामर के मंत्रोंकी साधनाके प्रभावसे ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, सूर्य, कार्तिकेय आदि देवताओंको शिवमन्दिरमें बुलवाये और फिर उन्हें साथ लेकर वे जिनमन्दिर पहुँचे । उस समय उन सब देवोंने जिन भगवानकी पूजा की । यह देख कर उन लोगों को बड़ा अचंभा हुआ ।