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मतिसागर मुनिकी कथा।
उन्होंने फिर शिवधर्मकी मिथ्या वासनाको छोड़ कर जैनधर्म ग्रहण कर लिया । जैनधर्मकी बहुत ही प्रभावना हुई। ___ इसके बाद ब्रह्मा आदि देवगण अपने अपने स्थान पर चले गए। इधर मुनिराज भी वहाँसे विहार कर गए । कारण धर्मोपदेश द्वारा जीवोंका हित करनेवाले साधु-महात्मा कभी एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहते । गुरुओंकी पवित्र संगतिसे पापी प्राणी भी धर्म ग्रहण करनेका पात्र हो जाता है । इसलिए भव्य पुरुषोंको सदा गुरु-संगति करनी चाहिए।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि - प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥ २२॥
___हिन्दी-पद्यानुवाद। माएँ अनेक जनतीं जगमें सुतोको
हैं; किन्तु वे न तुझसे सुतकी प्रसूता। . सारी दिशा धर रहीं रविका उजेला;
पै एक पूरब दिशा रविको उगाती॥ नाथ ! हजारों ही स्त्रियाँ पुत्रोंको जनती हैं। परन्तु आपके समान पुत्रको दूसरी माता न जन सकी। नक्षत्रोंको तो सब ही दिशाएँ धारण करती हैं, परन्तु देदीप्यमान् किरणोंवाले सूर्यको एक पूर्व दिशा ही जन्म देती है।
मतिसागर मुनिकी कथा। उक्त श्लोकके मंत्रकी आराधनाके प्रभावसे बड़े बड़े अभिमानी विद्वान् क्षण मात्रमें पराजित कर दिए जाते हैं। उसकी कथा इस प्रकार है