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'भक्तामर-कथा।
: जैनधर्मके ऐसे अश्रुत-पूर्व प्रभावको देख कर वे मुनिकी दिल्लमी उड़ानेवाले ब्राह्मण और उनके अतिरिक्त बहुतसे अन्यधर्मी जन भी जैनी हो गए । राजाने भी जैनधर्म ग्रहण कर लिया। मुनिराजके उद्योगसे धर्मकी बड़ी प्रभावना हुई। . . यह जान कर अन्य पुरुषोंको भी इस पवित्र स्तोत्रकी सदा आराधना करते रहना चाहिए।
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥२१॥ -
हिन्दी-पद्यानुवाद । देखे भले, अयि विभो ! परदेवता ही,
देखे जिन्हें हृदय आ तुझमें रमे ये। तेरे विलोकन किये फल क्या प्रभो, जो
. कोई रमे न मनमें परजन्ममें भी॥ हे प्रभो ! हरि, हर, ब्रह्मा आदि देवोंका देखना कहीं आपसे अच्छा है: क्योंकि उन्हें देख कर ही हृदय आपमें संतोष पाता है। इसका कारण यह है कि वे राग-द्वेष-सहित हैं और आप वीतराग-राग-द्वेष-रहित हैं । नाथ ! आपके देखनेसे लाभ ही क्या जो संसारमें जन्म-जन्मान्तरमें भी कोई देवी-देवता मेरे मनको हर नहीं सकते।
जीवनन्दी मुनिकी कथा । - इस श्लोकके मंत्रकी आराधनाके फलसे मन दूसरी और न जाकर स्थिर रहता है । इसकी कथा इस प्रकार है