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महीपालकी कथा ।
कह सुनाया । भगवद्भक्तिका ऐसा प्रभाव सुन कर बहुतोंने जैनधर्म ग्रहण किया ।
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिनतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् ।
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कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥
हिन्दी - पद्यानुवाद | देवाङ्गना हर सकीं मनको न तेरे,
आश्चर्य नाथ, इसमें कुछ भी नहीं है ।
कल्पान्तके पवन से उड़ते पहाड़,
पै मन्दराद्रि हिलता तक है कभी क्या ?
नाथ ! इसमें कोई आश्चर्य नहीं जो देवांगनाएँ आपके मनमें रंचमात्र भी विकार: पैदा नहीं कर सकीं; क्योंकि प्रलयकालके वायु द्वारा बड़े बड़े पर्वत चल सकते हैं, पर सुमेरुको वह कभी चलायमान नहीं कर सकता ।
महीपालकी कथा ।
इस श्लोक मंत्री आराधनासे अयोध्या के राजा महीपालको लाभ हुआ था । उनकी कथा इस प्रकार है
भारतवर्षमें कोशल एक प्रसिद्ध देश है। वह वन, सरोवर, नदी, आदिसे युक्त है । उसमें अनाथोंके लिए अन्नक्षेत्र, प्यासा के लिए पौ आदिका प्रत्येक शहरमें अच्छा प्रबंध है । उसकी प्रधान राजधानी अयोध्या है । वह बहुत प्रसिद्ध और सुन्दर पुरी है । उसमें अच्छे अच्छे विद्वान् और शूरवीरोंका निवास है । वह उन विशाल महलोंसे, जो ध्वजाएँ और तोरणोंसे बहुत सुन्दरता धारण किए हुए हैं, शोभित है ।