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भक्तामर-कथा।
भोजन करनेकी प्रार्थना की गई। डाहीने कहा कि मुझे जिन-पूजा करनेकी प्रतिज्ञा है और मैं अपने पासकी प्रतिमा पिताजीके वहीं भल आई हूँ। इसलिए जब तक पूजनका योग न मिलेगा तब तक मैं भोजन नहीं करूँगी । शास्त्रोंमें कहा है कि “ जो देव-पूजा और गुरुओंकी सेवा न करके भोजन करते हैं वे पापी हैं।" नव वधूकी आश्चर्य-भरी प्रतिज्ञा सुन कर उन लोगोंको बहुत दुःख हुआ। वे कुछ भी नहीं बोल सके-उन्हें चुप रह जाना पड़ा । इधर डाही उन्हें यों कह कर आप भक्तामरकी आराधना करने लगी। उसने अत्यन्त भक्ति और श्रद्धासे भगवानकी आराधना की । उसकी भक्तिके प्रसादसे देवीने प्रत्यक्ष होकर डाहीको एक सुन्दर फूलमाला और गुरुपादुका देकर कहापुत्री ! यह माला बड़ी पवित्र और बहुत फलकी देनेवाली है। भगुकच्छमें मुनिसुव्रत भगवानकी एक प्रतिमा है, उसके चरणोंका स्पर्श होनेसे यह माला रत्नोंकी बन जायगी और जब तू इसे अपने गलेमें पहनेगी तब इसके बीचकी मणिसे श्रीपार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा प्रगट होगी। इस समय तू इस गुरुपादुकाको गुरुकी जगह मान कर पूजा कर आहार कर ले । क्योंकि बन्धका कारण तो अपना भाव है। जैसा भाव होगा वैसा ही तो बंध होगा । __ इतना कह कर देवी चली गई । डाहीने गुरुपादुकाकी पूजा-वंदना. कर भोजन किया । पश्चात् सब अपने घर पर आ गये । देवीके कहे माफिक डाहीने आकर वह माला भगवानके चरणों पर चढ़ाई । वह रत्नकी माला बन गई । इसके बाद डाहीने जब उसे कण्ठों पहनी तब उसमेंसे पार्श्वनाथकी प्रतिमा भी प्रगट हो गई । यह देख कर डाही बहुत प्रसन्न हुई। सच है-पुण्यवानोंके लिए कोई वस्तु अप्राप्य नहीं होती । बालिकाने इस घटनाका हाल और स्तोत्रका माहात्म्य सबको