SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डाही श्राविकाकी कथा । बहुतसे लोग आपके मुखको चन्द्रमाकी उपमा देते हैं, पर वह ठीक नहीं है ।. कारण आपकी शोभा स्थाई है और उसकी अस्थाई । इसके सिवा वह कलंकी है और आप निष्कलंक। हे प्रभो, आपके पूर्ण चन्द्रमाकी कलाके समान निर्मल गुण तीनों लोकोंको भी लाँघ चुके हैं-सर्वत्र ही आपके गुण फैल गए हैं। सो ठीक ही है जो इन्द्र, नरेन्द्र सरीखे त्रिभुवनके मालिकोंके भी मालिकके आश्रित हैं, उन्हें अपनी इच्छानुसार जहाँ तहाँ घूमते रहते कौन रोक सकता है ? डाही श्राविकाकी कथा। - उक्त श्लोकोंके मंत्रोंकी आराधनासे एक डाही नामकी श्राविकाको 'फल प्राप्त हुआ है। उसकी कथा नीचे लिखी जाती है___ पटनामें एक सेठ रहता था। उसका नाम सत्यक था। वह बड़ा सत्यवादी था। उसके एक लड़की थी। वह बहुत सुन्दर थी । उसका नाम डाही था। एक दिन सत्यक हेमचंद्र मुनिराजकी वन्दनाके लिए गया । काललब्धिकी प्रेरणासे उसके साथ उसकी लडकी डाही भी गई। मुनिराजने सत्यकको देव-पूजाका माहात्म्य सुनाया । उससे वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने मुनिराजके पास प्रतिदिन देव-पूजा करनेकी प्रतिज्ञा ली। साथ ही डाहीने भी वही प्रतिज्ञा ग्रहण की और नियम लिया कि देव-पूजा किये बिना मैं भोजन नहीं करूँगी । इसके सिवा दोनों भक्तामर स्तोत्रके नित्य पाठ करनेकी प्रतिज्ञा ग्रहण कर और मुनिराजको नमस्कार कर अपने घर चले आए। ___डाहीके ब्याहका समय आया। वह भृगुकच्छ नामक शहरके रहनेवाले धनदत्त सेठसे ब्याही गई । सुसराल जाते समय रास्तेमें एक तालाबके किनारे पर विश्रामके लिए पड़ाव किया गया । भोजनकी तैयारी हुई। उत्तम और सुस्वादु भोजन तैयार किया गया । नव वधूसे
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy