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भक्तामर-कथा ।
इस प्रकार भक्तामरका प्रभाव जान कर जो भव्य पुरुष प्रतिदिन इसकी भक्तिभाव और श्रद्धा के साथ आराधना करते हैं, वे मनोवांछित सुखको पाते हैं। क्योंकि ' धर्मः सर्वसुखाकरः ' अर्थात् धर्म - सब सुखोंकी खान है ।
वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्कमलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पाण्डु पलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ सम्पूर्णमण्डलशशाङ्ककलाकलाप
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । संश्रितास्त्रजगदीश्वरनाथ मेकं कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥ १४ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद |
तेरा कहाँ मुख सुरादिक नेत्ररम्य,
सर्वोपमान - विजयी, जगदीश, नाथ, त्योंही कलंकित कहाँ वह चन्द्र-बिम्ब, जो हो पड़े दिवस द्युतिहीन फीका ॥ अत्यन्त सुन्दर कलानिधिकी कलासे,
तेरे मनोज्ञ गुण नाथ, फिरें जगों में । है आसरा त्रिजगदीश्वरका जिन्होंको, रोक उन्हें त्रिजगमें फिरते न कोई ॥ गुण-समुद्र ! सब उपमानों को जीतनेवाला - इतना सुन्दर कि संसारमें जिसकी उपमाके योग्य कोई पदार्थ ही नहीं है, और देव, मनुष्य, विद्याधर, धरणेन्द्र आदिके नेत्रोंको अपनी ओर आकर्षित करनेवाला - जिसे ये भी बड़ी उत्कण्ठतासे देखते हैं, ऐसा आपका त्रिभुवन-सुन्दर मुख कहाँ ? और कलंकयुक्त चन्द्रमा कहाँ ? जो कि दिनमें फीका पड़ जाता है-शोभारहित हो जाता है । अर्थात