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भक्तामर-कथा।
- उसके राजा महीपाल थे । वे बहुत गुणवान् , नीतिके जाननेवाले, और बड़े प्रनाप्रिय थे। भाग्यसे उन्हें एक पिशाच लग गया। उसके दूर करनेका बहुत प्रयत्न किया गया; परन्तु किसीके द्वारा उन्हें लाभ नहीं पहुँचा। एक दिन राजमंत्री, गुणसेन मुनिराजके पास गया और उनसे उसने प्रार्थना की-प्रभो ! मेरे महाराजको एक पिशाच लग गया है। वह उन्हें बहुत तकलीफ दिया करता है । कोई ऐसा उपाय बतलाइए जिससे उनका दुःख दूर हो जाय । उत्तरमें मुनिराजने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर कहा कि अच्छी बात है, कल बतलायँगे। मंत्री उनका उत्तर पाकर चला आया । __रातमें मुनिने भक्तामरके दो श्लोकोंकी आराधना की । उसके प्रमावसे देवीने प्रत्यक्ष होकर कहा-मुनीश्वर ! भक्तामर काव्यके द्वारा मंत्रा हुआ जल राजाको पिलाने और उसी जलको उनकी आँखों पर
छींटनेसे उन्हें शीघ्र ही आराम हो जायगा। ___ दूसरे दिन मंत्री फिर मुनिके पास आया । मुनिने वे सब बातें मंत्रीसे कहीं; और मंत्रीने जाकर वह हाल राजासे कहा । सुन कर राजा बहुत खुश हुए। उन्होंने सब लोगोंके सामने मुनिराज द्वारा उस प्रयोगको करवाया । मुनिराजने ज्यों ही वह जल राजाको पिला कर उनकी आखों पर छिडका त्यों ही वह पिशाच चिल्ला कर भाग खड़ा हुआ । राजा स्वस्थ हो गए ।
भक्तामरका ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देख कर उस समय वहाँ जितने लोग उपस्थित थे, उन पर उसका बहुत प्रभाव पड़ा। सबकी जिनधर्म पर बड़ी श्रद्धा हो गई। उनमें बहुतोंने जैनधर्म स्वीकार किया । जैनधर्मकी बड़ी प्रभावना हुई।