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________________ १८ भक्तामर-कथा। इच्छासे विदेश जा रहा था। केशव भी उसके साथ हो लिया । जब वे सब लोग एक घने जंगलमें पहुंचे, तो साथके लोगोंने केशवके रत्न छीन लेना चाहा । कारण, दर-असल वे साहूकार नहीं थे; किन्तु साहकारके वेषमें डकैत थे। केशव पर फिर एक नई विपत्ति आई। पर उसे अपने धर्म पर गाढ़ श्रद्धा होनेके कारण उससे वह न डर कर एकासनसे भक्तामरकी आराधना करनेको बैठ गया। उसके प्रभावसे देवीने आकर अपनी मायासे सब डाकुओंको भगा दिया । यहाँसे जान लेकर केशव आगे बढा, तो रास्ता ही भूल गया । बेचारा फिर बड़े संकटमें पड़ गया। सचमुच जब पापका उदय होता है, तब आपत्ति पर आपत्ति आती रहती हैं। एकसे छुटकारा हो नहीं पाता कि दूसरी सिर पर तैयार खड़ी रहती है । रास्तों उसे बड़ी प्यास लगी। वहाँ बड़ी दूर तक पानीका नाम तक नहीं था। प्यासके मारे वह छट-पटा उठा। पर करता क्या ? उसे फिर सहसा स्तोत्र पाठ करनेकी याद हो उठी। उसने विचारा कि बिना पानीके जानके बचनेका सन्देह है। और जब मरना ही है, तो आकुलतासे अधीर होकर क्यों मरना ? शान्तिसे धर्मकी आराधनापूर्वक मरना अच्छा है, जिससे कुगतिमें न जाना पड़े। इसके बाद वह भगवानकी आराधनामें लीन हो गया। उसके प्रभावसे झट देवीने आकर उसकी सहायता की । उसे पानी भी पीनेको मिल गया, उसकी जान भी बच गई और रास्ता भी उसे मालूम हो गया। वह वहाँसे आगे न जाकर घर लौट आया। उसे फिर धनकी खूब प्राप्ति हो गई । वह अपने धनको दान और हर एक धर्म-काममें खर्च करने लगा । उससे उसके पास दिन-दूना और रातचौगुना धन बढ़ने लगा। यह सब धर्ममें अचल श्रद्धा रखनेका प्रभाव है । इसलिए भव्य पुरुषोंको धर्ममें सदा अपना मन लगाना चाहिए
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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