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________________ १६ भक्तामर - कथा । सल्लोकके हृदयको; जलबिन्दु भी तो मोती समान नलिनीदलपै सुहाते ॥ निर्दोष दूर तव हो स्तुतिका बनाना, तेरी कथा तक हरे जगके अघोंको । हो दूर सूर्य, करती उसकी प्रभा ही अच्छे प्रफुल्लित सरोजनको सरोंमें ॥ नाथ ! यही समझ कर कम बुद्धि होने पर भी मैं जो आपकी स्तुति करता हूँ वह भी आपके प्रभावसे सज्जनोंके चित्तको तो हरेगी ही । क्योंकि कमलके पत्र पर पड़ी हुई जलकी बूँदें भी मोतीकी तरह सुन्दर दिख कर लोगोंके चित्तको हरी 1 प्रभो ! आपकी निर्दोष स्तुति तो दूर रहे, किन्तु आपकी पवित्र कथाका सुनना ही संसार के सब पापको नष्ट कर देता है । ठीक तो है -सूर्यके दूर रहने पर उसकी किरणें ही सरोवरोंमें कमलोंको प्रफुल्लित कर देती हैं । कष्ट केशवदत्तकी कथा | उक्त श्लोकोंके मंत्रोंको जपनेसे केशव नामक एक महाजनके सब थे । उसकी कथा इस प्रकार हैहो गए दूर वसन्तपुरमें केशवदत्त नामक एक महाजन रहता था । वह निर्धन होकर मिथ्यात्वी था । एक दिन किसी मुनिराजसे उसने धर्मका उपदेश सुना । उसे सुन कर वह श्रावक हो गया । इसके बाद वह भक्तामर स्तोत्र सीख कर प्रतिदिन उसका बड़ी भक्ति के साथ पाठ करने लगा । एक दिन केशवदत्त धन कमानेकी इच्छासे विदेशकी ओर चला । चलते चलते वह एक वनमें पहुँचा । वहाँ एक सिंहने उसे खा जाना चाहा। उस समय केशवने अपनी रक्षाका कुछ उपाय न देख कर भक्तामर-स्तोत्रकी आराधना करनी शुरू करदी । उसके प्रभावसे एकाएक
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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