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सुधनकी कथा ।
तेरी किये स्तुति विभो ! बहु जन्मके भी, होते विनाश सब पाप मनुष्यके हैं । भरे समान अति श्यामल ज्यों अँधेरा होता विनाश रविके करसे निशाका ॥
१३.
मुनीश ! मुझमें आपकी स्तुति करनेकी शक्ति नहीं है, तो भी मैं जो स्तुति करता हूँ, वह केवल आपकी भक्तिके वश होकर करता हूँ । प्रभो ! अपनी शक्तिका विचार न करके भी क्या हरिण अपने बच्चेको बचानेके लिए सिंहके सामने नहीं होता ? - तब शक्तिके न रहते हुए भी आपकी स्तुति करना मेरे लिए कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।
प्रभो ! मेरा शास्त्र - ज्ञान बहुत थोड़ा है और इसीलिए विद्वानोंके सामने मैं हँसीका पात्र हूँ, तो भी आपकी भक्ति मुझे जबरन स्तुति करनेके लिए बाचाल कर रही है । क्योंकि जिस भाँति कोकिलाएँ वसन्तमें जो मधुर मधुर आलापती हैं, उसका कारण आम्र-मंजरी है उसी भाँति मेरे स्तुति करनेमें आपकी भक्ति कारण है ।
नाथ ! जिस भाँति सूर्यकी किरणों द्वारा सारे लोकमें फैला हुआ और भौरों के समान काला अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी भाँति आपकी स्तुति करनेसे जन्म-जन्म में एकत्रित हुए जीवोंके पाप क्षण भरमें नष्ट हो जाते हैं ।
सुधनकी कथा ।
उक्त श्लोकोंकी आराधनाका फल शास्त्रार्थमें विजय प्राप्त करना है । इसका फल सुधन नामके एक सेठको मिला था । उसकी कथा नीचे लिखी जाती है—
पटने में एक सुधन नामका सेठ रहता था । वह बहुत धनी और दानी था । उसकी जिनधर्म पर बडी श्रद्धा थी । उसने एक बहुत 1 विशाल रमणीय जिनमन्दिर बनवाया था । उसमें वह प्रतिदिन नियम पूर्वक जिनभगवान की पूजा किया करता था । ।
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