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भक्तामर-कथा।
हे गुण-समुद्र ! बृहस्पतिके समान बुद्धिमान् जन भी आपके चन्द्रमा-सदृश मनोहर गुणोंका वर्णन करनेको समर्थ नहीं। (तब मुझ सरीखे अल्पज्ञकी तो बात ही क्या है।) नाथ ! प्रलयकालकी वायु द्वारा मगर-मच्छ आदि भयंकर जीवोंका समूह जिस समुद्रमें प्रचण्डता धारण किये हुए है-इधर उधर मुँह बाये लहरें ले रहा है, उसे भुजाओं द्वारा कौन तैर सकता है !
सुमतिकी कथा । . सुमति नामके एक महाजनने उक्त श्लोकोंकी आराधना द्वारा फल प्राप्त किया है। उसकी कथा इस प्रकार है
भारतवर्ष में अवन्ति नाम एक प्रसिद्ध प्रांत है। वह बहुत सुन्दर, धन-धान्य आदिसे परिपूर्ण और बहुत समृद्धिशाली है। वहाँ एक सुमति नामका महाजन रहता था। वह बेचारा दरिद्री था। . __एक दिन उज्जयिनीके वनमें पिहिताश्रवमुनि अपनी शिष्यमंडलीको लिए हुए आए । उनका आना सुनकर नगरीके सब लोग उनकी वन्दना करनेको गए। साथ ही सुमति भी गया । वहाँ धर्मोपदेश सुन कर उसे बहुत आनंद हुआ। इसके बाद उसने मुनिराजसे कहानाथ! दरिद्रता बहुत कष्ट देती है । यह जीवोंकी परम शत्रु है । मैं इसी दरिद्रताके कारण अत्यन्त कष्ट पा रहा हूं। खाने तकको मुझे बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है। आप दयालु हैं। मुझे कुछ उपाय बतलाइए, जिससे इस पापिनीसे मेरा पीछा छूटे। उसके दुःखभरे बचन सुनकर मुनिराज बोले-भाई ! जो जैसा काम करता है उसका उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है । उसे कोई नहीं मेट सकता । परन्तु धर्मसेवनसे बहुतोंका हित हुआ देखा गया है, इस कारण तृ भी उसका दृढ़-चित्तसे पालन कर। उससे पाप नष्ट होकर तुझे पुण्यकी प्राप्ति होगी । इसके साथ इतना और करना कि मैं जो तुझे दो श्लोक