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________________ मदत्तकी कथा | यह कह कर राजाने देवीको प्रणाम किया । देवी राजाको आशिष देकर चली गई । हेमदत्तका फिर वस्त्राभूषणसे खत्र सन्मान हुआ । धर्मकी खूब प्रभावना हुई । बहुतोंने जैनधर्म ग्रहण किया और जैनोंकी अपने धर्म में श्रद्धा खूब दृढ़ हो गई । बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्र पोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥ ३ ॥ वक्तुं गुणान्गुणसमुद्र ! शशाङ्ककान्तान् कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया । कल्पान्तकालपवनोद्धूतनक्रचक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ ४ ॥ हिन्दी - पद्यानुवाद | हूँ बुद्धिहीन फिर भी बुधपूज्यपाद, तैयार हूँ स्तवनको निर्लज्ज होके । है और कौन जगमें तज बालको जो लेना चहे सलिल-संस्थित चन्द्र- बिम्ब ॥ होवे बृहस्पतिसमान सुबुद्धि तो भी, है कौन जोगिन सके तव सद्गुणोंको । कल्पान्तवायु-वरा सिन्धु अलंघ्य जो है, है कौन जो तिर सके उसको भुजासे ॥ अर्थात् हे देवों द्वारा पूजनीय चरण बुद्धिके न होते हुए भी मैं जो आपकी स्तुति करने चला हूँ, यह मेरी निर्लज्जता है । नाथ बालकको छोड़ कर और कौन जलमें पड़े हुए चन्द्रमाके प्रतिबिम्बको हाथसे पकड़नेकी सहसा इच्छा कर सकता है । अर्थात् मेरा भी यह प्रयत्न बालककी भाँति ही है ।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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