________________
६
भक्तामर कथा ।
भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्योतकं दलित पापतमेोवितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुगं युगादावालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ॥ १ ॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबोधादुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर्जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारैः
स्तोये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥ २ ॥
हिन्दी पद्यानुवाद |
हैं भक्त देव- नत मौलि-मणि-प्रभाके उद्योतकारक, विनाशक पापके हैं, आधार जो भवपयोधि पड़े जन के, अच्छी तरा नम उन्हीं प्रभुके पदोंकोश्री आदिनाथविभुकी स्तुति मैं करूँगा;
की देवलोकपतिने स्तुति है जिन्होंकीअत्यंत सुन्दर जगत्त्रय-चित्तहारी सुस्तोत्रसे, सकल शास्त्र - रहस्य पाके ॥
जो पापरूपी अन्धकारके प्रवृत्ति के समय संसार-
अर्थात् जो नमस्कार करते हुए भक्त देवोंके मुकुटोंमें जड़े रत्नोंकी कान्तिकें उद्योतक हैं-बढ़ानेवाले हैं, अर्थात् - जिनके चरणोंकी का है कि वह स्वर्गीय रत्नोंकी कान्तिको भी दिपाता है, नाश करनेवाले, और युगकी आदिमें - कर्मभूमि की समुद्रमें गिरते हुए जीवोंके आश्रय - बचानेवाले हुए, उन जिन भगवान्के चरणों को मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक नमस्कार कर मैं प्रथम जिनेन्द्र श्रीआदिनाथ भगवान्की स्तुति करता हूँ, जिनकी कि स्तुति देवने - जिनकी कि बुद्धि द्वादशांग और चतुर्दशपूर्वके तत्त्वज्ञानसे बहुत विलक्षण थी - उदार और तीन जगत्के हृदयको मुग्ध करनेवाले स्तोत्रों द्वारा की है ।