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________________ मंगल और कथावतार। बड़ा हतप्रभ होना पड़ा। साथ ही राजाको भी अपने अविचार पर लज्जित होना पड़ा । राजा मुनिकी तपश्चर्याके प्रभावको देखकर बहुत खुश हुआ। उसने फिर मुनिकी बड़े भक्तिभावसे स्तुति की-कि प्रभो ! संसारमें आप बड़े भाग्यशाली हैं, मोह-शत्रुके नाश करनेवाले हैं, बड़े तपस्वी हैं, ज्ञानी हैं, सत्यवादी हैं, साक्षात् मोक्षके मार्ग हैं, संसारका सच्चा हित करनेवाले हैं, शंकर हैं, और क्षमाके सागर हैं; जो अपराधी लोगों पर भी सदा क्षमा करते हैं। नाथ ! अज्ञान-वश जो कुछ मुझसे अपराध बन पड़ा है उसके लिए मैं आपसे क्षमाकी भीख माँगता हूँ। यह कहकर राजा बड़े विनीत भावसे मुनिराजके पाँवोंके पास आ खड़े हुए । मुनिराजने तब उन्हें धर्मोपदेश दिया । उससे राजाका जैनधर्म पर दृढ़ विश्वास हो गया। वे मुनिराज द्वारा उपदेश किये व्रतोंको स्वीकार कर उत्तम श्रावक बन गये। इस प्रकार धर्म-प्रभावना कर मुनिराज वहाँसे विहार कर गये। ___ इसके बाद भोजराजने अपनी नगरीमें बहुतसे जिन मन्दिर बनवाये और उनमें विराजमान करनेके लिए बहुमूल्य सुन्दर जिनप्रतिमायें तैयार करवा कर उनकी बड़े उत्सवके साथ प्रतिष्ठा करवाई, पात्रोंको खूब दान दिया । राजाके जैनधर्म स्वीकार करनेसे धर्मकी बड़ी प्रभावना हुई। ___ श्रीमानतुंगस्वामीके बनाये पवित्र भक्तामरका जो श्रद्धा-भक्तिसे प्रतिदिन पाठ किया करते हैं, वे मनचाही सिद्धिको नियमसे प्राप्त करते हैं। यह भक्तामर-स्तोत्रकी रचनाका कारण है। अब इसके द्वारा जिन जिन लोगोंने फल प्राप्त किया है, उनकी कथाएँ संक्षिप्तमें यहाँ लिखी जाती हैं।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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