________________
भक्तामर - कथा |
मुनिराजने वहाँ आदिनाथ भगवान की स्तुतिमें इसी भक्तामर स्तोत्रका रचना प्रारंभ किया । वे जैसे जैसे इसे रचते जाते थे वैसे वैसे उनकी अपार भक्तिके प्रभावसे उनके बन्धन टूटते जाते थे । जब सब बन्धन टूट गये और सब कोठड़ियों के ताले भी अपने आप खुल पड़े तब अन्तमें केवल हाथों को वैसे ही बँधे रखकर मुनिराज राजसभामें आ उपस्थित हुए। वे राजासे बोले - राजन् ! मैंने तो अपनी शक्तिका तुम्हें परिचय दिया, अब तुम्हारे शहर में भी कोई ऐसा विद्वान पंडित है जो अपनी विद्या के बलसे मेरे हाथोंका बन्धन तोड़ सके ? यदि हो, तो बुलवाकर मेरे बन्धन तुड़वाइए ।
यह देख राजाने कालिदासआदि विद्वानोंकी ओर इशारा कर बन्धन तोड़नेके लिए उनसे कहा । राजाकी आज्ञा पाकर वे उठे और अपनी अपनी विद्याका बल बताने लगे, पर उनसे कुछ भी नहीं हुआ । यह देख वे बड़े शर्मिन्दा हुए। जब उन्होंने अपनी शक्तिभर बन्धन के तोड़नेका खूब प्रयत्न कर लिया और कुछ नहीं कर सके तब मुनिराजने राजासे कहा- राजन्! इन बेचारोंकी क्या ताकत जो ये इस बन्धनको तोड़ सकें। जो सियालको जीतनेवाले हैं वे सिंहको नहीं जीत सकते । यही हाल इन लोगोंका है जो ये दूसरोंको ठगने और मुग्ध करनेके लिए अपनी माया द्वारा आश्चर्य भरी बातें दिखाया करते हैं और उस-पर बड़ा अभिमान करते हैं । पर इनका यह अभिमान करना झूठा है। इनका अभिमान करना तो तब सच्चा समझा जाता जब कि ये इस बंधन को तोड़ देते । अस्तु; ये लोग यदि इसे नहीं तोड़ सकते तो मैं ही तोड़े देता हूँ । यह कहकर मुनिराजने अपने स्तोत्रका अन्तिम श्लोक रचा। उसका पूरा रचा जाना था कि सबके देखते देखते मुनिराजके हाथोंका बन्धन टूटकर अलग जा गिरा । यह देखकर कालिदास वगैरह पंडितों को