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भक्तामर-कथा।
| अग।
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तुम पदपंकजधलको, जो लावै निज अंग | ते नीरोग शरीर लहि, छिनमैं होयँ अनंग ॥ ४५ ॥
पांव कंठतें जकर, बांध सांकल अति भारी । गाढ़ी बेड़ी पैरमाहि, जिन जांघ विदारी ॥ भूख प्यास चिंता शरीर, दुख जे विललाने ।
सरन नाहिं जिन कोय, भूपके बंदीखाने । तुम सुमरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं । . छिनमें ते सम्पति लहैं, चिंता भय विनसाहिं ॥ ४६॥
महामत्त गजराज, और मृगराज दवानल। फनपति रन परचंड, नीरनिधि रोग महाबल ॥ बन्धन ये भय आठ, डरपकर मानों नाश ।
तुम सुमरत छिनमाहिं, अभय थानक परकाशैं ॥ इस अपार संसारमें, शरन नाहिं प्रभु कोय । यातें तुम पद भक्तको, भक्ति सहाई होय ॥ ४७ ॥
यह गुनमाल विशाल, नाथ तुम गुनन सँवारी । विविध वर्णमय पुहुप, गूंथ मैं भक्ति बिथारी ॥ जे नर पहरै कंठ, भावना मनमें भावै । मानतुंग ते निजाधीन, शिवलछमी पावै ॥ भाषा-भक्तामर कियो, हेमराज हितहेत । जे नर पर्दै सुभावसों, ते पावै शिवखेत ॥४८॥
समाप्त.।
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