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________________ १२४ भक्तामर-कथा। | अग। . तुम पदपंकजधलको, जो लावै निज अंग | ते नीरोग शरीर लहि, छिनमैं होयँ अनंग ॥ ४५ ॥ पांव कंठतें जकर, बांध सांकल अति भारी । गाढ़ी बेड़ी पैरमाहि, जिन जांघ विदारी ॥ भूख प्यास चिंता शरीर, दुख जे विललाने । सरन नाहिं जिन कोय, भूपके बंदीखाने । तुम सुमरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं । . छिनमें ते सम्पति लहैं, चिंता भय विनसाहिं ॥ ४६॥ महामत्त गजराज, और मृगराज दवानल। फनपति रन परचंड, नीरनिधि रोग महाबल ॥ बन्धन ये भय आठ, डरपकर मानों नाश । तुम सुमरत छिनमाहिं, अभय थानक परकाशैं ॥ इस अपार संसारमें, शरन नाहिं प्रभु कोय । यातें तुम पद भक्तको, भक्ति सहाई होय ॥ ४७ ॥ यह गुनमाल विशाल, नाथ तुम गुनन सँवारी । विविध वर्णमय पुहुप, गूंथ मैं भक्ति बिथारी ॥ जे नर पहरै कंठ, भावना मनमें भावै । मानतुंग ते निजाधीन, शिवलछमी पावै ॥ भाषा-भक्तामर कियो, हेमराज हितहेत । जे नर पर्दै सुभावसों, ते पावै शिवखेत ॥४८॥ समाप्त.। म .ORDamITRADEX CUTTITMENTAND
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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