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________________ भाषा-भक्तामर । १२३ जो चापै निज पावतें, व्यापै विष न लगार । नागदमनि तुम नामकी, है जिनके आधार ॥ ४१॥ जिस रनमाहिं भयान, शब्द कर रहे तुरंगम । घनसे गज गरजाहिं, मत्त मानो गिरि जंगम ॥ अति कोलाहलमाहि, बात जहँ नाहिं सुनीजै । राजनको परचंड, देख बल धीरज छीजै ॥ नाथ तिहारे नामतें, सो छिनमाहिं पलाय । ज्यों दिनकर परकाशतें, अंधकार विनशाय ॥ ४२ ॥ ___मारे जहां गयंद, कुम्भ हथियार बिदारे । उमगे रुधिरप्रवाह, बेग जलसे विस्तारे ॥ होय तिरन असमर्थ, महाजोधा बल पूरे । तिस रनमें जिन तोय, भक्त जे हैं नर सूरे ॥ दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावै निकलंक। तुम पदपंकज मन बसै, ते नर सदा निशंक ॥ ४३ ॥ नक्र चक्र मगरादि, मच्छकरि भय उपजावै । ___ जामें वड़वा अग्नि, दाहः नीर जलावै ॥ पार न पावै जास, थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अति गंभीर, लहरकी गिनति न ताकी ॥ सुखसों तिरै समुद्रको, जे तुमगुन सुमिराहिं । लोल कलोलनके शिखर, पार यान ले जाहिं ॥ ४४ ॥ महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं । बात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहे हैं। सोचत हैं उदास, नाहिं जीवनकी आशा । अति घिनावनी देह, धरै दुर्गंधनिवासा ॥
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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