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भक्तामर-कथा।
षट्पद ।
। मदअवलिप्तकपोल-मूल अलिकुल झंकारें ।
तिन सुन शब्द प्रचंड, क्रोध उद्धत अति धारै ॥ . कालवरन विकराल, कालवत् सनमुख आवै ।
ऐरावत सो प्रबल, सकल जन भय उपजावै ॥ देखि गयंद न भय करै, तुम पद महिमा लीन । विपतिरहित संपतिसहित, बरतै भक्त अदीन ॥ ३८॥
अतिमदमत्त गयंद, कुम्भथल नखन बिदारै । मोती रक्त समेत, डारि भूतल सिंगारै ॥ बांकी दाढ़ विशाल वदनमें रसना लोलै ।
भीम भयानकरूप देखि जनथरहर डोलै ॥ । ऐसे मृगपति पग तलें, जो नर आयो होय । शरन गहे तुव चरनकी, बाधा करै न सोय ॥ ३९ ॥
प्रलयपवनकरि उठी आग जो तास पटंतर । . बमै फुलिंग शिखा, उतंग परजलै निरंतर ॥ जगत समस्त निगल्ल, भस्म करहैगी मानो ।
तड़तड़ाट दव अनल, जोर चहुँदिशा उठानो ॥ सो इक छिनमें उपशमैं, नामनीर तुम लेत । होय सरोवर परिणमै, विकसित कमल समेत ॥ ४०॥
कोकिलकंठ समान, श्याम तन क्रोध जलंता । रक्तनयन फुकार, मार-विषकन उगलंता ॥ फनको ऊँचो करै, बेग ही सनमुख धाया । तुव जन होय निशंक, देख फनपतिको आया ।