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________________ १२२ भक्तामर-कथा। षट्पद । । मदअवलिप्तकपोल-मूल अलिकुल झंकारें । तिन सुन शब्द प्रचंड, क्रोध उद्धत अति धारै ॥ . कालवरन विकराल, कालवत् सनमुख आवै । ऐरावत सो प्रबल, सकल जन भय उपजावै ॥ देखि गयंद न भय करै, तुम पद महिमा लीन । विपतिरहित संपतिसहित, बरतै भक्त अदीन ॥ ३८॥ अतिमदमत्त गयंद, कुम्भथल नखन बिदारै । मोती रक्त समेत, डारि भूतल सिंगारै ॥ बांकी दाढ़ विशाल वदनमें रसना लोलै । भीम भयानकरूप देखि जनथरहर डोलै ॥ । ऐसे मृगपति पग तलें, जो नर आयो होय । शरन गहे तुव चरनकी, बाधा करै न सोय ॥ ३९ ॥ प्रलयपवनकरि उठी आग जो तास पटंतर । . बमै फुलिंग शिखा, उतंग परजलै निरंतर ॥ जगत समस्त निगल्ल, भस्म करहैगी मानो । तड़तड़ाट दव अनल, जोर चहुँदिशा उठानो ॥ सो इक छिनमें उपशमैं, नामनीर तुम लेत । होय सरोवर परिणमै, विकसित कमल समेत ॥ ४०॥ कोकिलकंठ समान, श्याम तन क्रोध जलंता । रक्तनयन फुकार, मार-विषकन उगलंता ॥ फनको ऊँचो करै, बेग ही सनमुख धाया । तुव जन होय निशंक, देख फनपतिको आया ।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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