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भाषा-भक्तामर ।
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चौपाई ।
तुम जिन ! पूरनगुनगन भरे । दोष गरबकरि तुम परिहरे ॥ और देवगन आश्रय पाय । सुपन न देखे तुम फिर आय ॥२७॥ तरुअशोकतर किरण उदार । तुम तन शोभित है अविकार || मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत । दिनकर दिपै तिमिरनिहनंत ॥ २८ ॥ सिंहासन मणिकिरनविचित्र । ता पर कंचनवरन पवित्र ॥ तुम तन शोभित किरनविथार । ज्यों उदयाचल रवि तमहार ||२९|| कुंदपुहुप सितचमर ढरंत । कनकवरन तुम तन सोभंत ॥ ज्यों सुमेरुतट निर्मल कांति । झरना झरैं नीर उमगांति ॥३०॥ ऊँचे रहें सूर -दुति-लोप । तीन छत्र तुम दिपैं अगोष || तीन लोककी प्रभुता कहैं । मोती झालरसों छबि लहैं ॥ ३१ ॥ दुंदुभि शब्द गहर गंभीर । चहुँदिशि होय तुम्हारे धीर ॥ त्रिभुवनजन शिवसंगम करें। मानों जय जय रव उच्चरें ||३२|| मंद पवन गंधोदक इष्ट | विविध कल्पतरु पुहुपसुदृष्ट | देव करें विकसित दल सार । मानों द्विजपंकति अवतार ||३३|| तुम तन भामंडल जिनचंद | सब दुतिवंत करत है मन्द ॥ कोटि शंख रवि तेज छिपाय । शशिनिर्मळ निशि करै अछाय ||३४|| स्वर्गमोक्षमारग संकेत | परमधरम उपदेशन हेत । दिव्य वचन तुम खिरै अगाध । सबभाषागर्भित हितसाध ॥ ३५ ॥ दोहा | विकसित सुवरनकमलदुति, नखदुति मिल चमकाहिं । तुम पद पदवी जहँ धेरै, तहँ सुर कमल रचाहिं ॥ ३६ ॥ ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय । सूरजमें जो जोत है, नहिं तारागन होय ।। ३७ ।।