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________________ १२० भक्तामर-कथा। नाराच छन्द। सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया, स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया। कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया, ___ मनोग चित्तचोर, और भूलहू न देखिया ॥२१॥ अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं, __न तो समान पुत्र और मात” प्रसूत हैं। दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै, दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥ २२॥ पुरान हो पुमान हो पुनीत पुन्यवान हो, ___ कहैं मुनीश अंधकारनाशको सुभान हो । महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके, ' न और मोख मोखपंथ देव तोहि टालके ॥ २३ ॥ अनंत नित्य चित्तकी अगम्यरम्य आदि हो, __ असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो । महेश कामकेतु जोगईश जोग ज्ञान हो, - अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ॥ २४ ॥ तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धिके प्रमानौं, तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रियै विधानतें । तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतें, नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थक विचारतें ॥ २५ ॥ नमो करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो, __ नमो करूँ सुभूरि भूमिलोकके सिंगार हो । नमो करूँ भवाब्धिनीरराशिशोखहेतु हो, नमो करूँ महेश तोहि मोखपंथ देत हो ॥ २६ ॥
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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