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भाषा-भक्तामर ।
नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत । तुमसे तुम गुण बरनत संत॥ जो अधीनको आप समान। करैन सो निन्दित धनवान ॥१०॥ इकटक जन तुमको अवलोय । औरवि रति करै न सोय ॥ को करि खीरजलधिजलपान । खारनीर पीवै मतिमान ॥११॥ प्रभु तुम वीतराग गुनलीन । जिन परमानु देह तुम कीन ॥ हैं तितने ही ते परमानु । यात तुमसम रूप न आन ॥ १२ ॥ कह तुम मुख अनुपम अविकार । सुरनरनागनयनमनहार ॥ कहाँ चंद्रमंडल सकलंक । दिनमें ढाकपत्रसम रंक ॥१३॥ पूरनचंद्र जोति छविवंत । तुम गुन तीनजगत लंघतः॥ एकनाथ त्रिभुवन आधार। तिन विचरत को करै निवार ॥१४॥ जो सुरतियविभ्रम आरंभ । मन न डिग्यौ तुम तौ न अचंभ ॥ अचल चलावै प्रलय समीर । मेरुशिखर डगमगै न धीर ॥१५॥ धूमरहित बाती गतनेह । परकाशै त्रिभुवन घर येह ॥ वातगम्य नाही परचंड । अपर दीप तुम बलो अखंड ॥ १६ ॥ छिपहु न लुपहु राहुकी छाहिं । जगपरकाशक हो छिनमाहि ॥ घन अनवर्त्त दाह विनिवार रवित अधिक धरो गुनसार ॥१७॥ सदा उदित विदलिततममोह । विघटितमेघ राहु अविरोह ॥ तुम मुखकमल अपूरब चंद । जगतविकाशी जोति अमंद ॥१८॥ निशदिन शशिरविको नहिं काम । तुम मुखचंद हरै तमधाम ॥ जो स्वभावतै उपजे नाज । सजल मेघरौं कौनहु काज ॥१९॥ जो सुबोध साह तुममाहिं । हरि हर आदिकमें सो नाहि ॥ जो दुति महारतनमें होय । काचखंड पावै नहिं सोय ॥२०॥