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महेभ सेठकी कथा।
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मुनिसे भक्तामरस्तोत्र सीखा था । साथमें उसके मंत्रोंकी आराधना. करना भी गुरुने उसे बतला दिया था। उसके पास बहुत धन होने पर भी उसने सोचा कि:
स्वापतेयमनायं चेत्सव्ययं व्येति भूर्यपि।
सवदा भुज्यमानो हि पर्वतोपि परिक्षयी॥ बहुत धन होने पर भी आमदनी न हो और खर्च बराबर जारी रहे, तो वह एक न एक दिन अवश्य नष्ट हो जाता है । विशाल पर्वतको थोड़ा थोड़ा भी प्रतिदिन खोदते रहनेसे एक न एक दिन उसका अंत आ ही जाता है । अतः धनके बढ़ानेका अवश्य यत्न करना चाहिए। यह विचार कर वह धन कमानेकी इच्छासे मणि-माणिक आदि रत्नोंसे परिपूर्ण सिंहलद्वीपमें पहुँचा । वहाँ उसने बहुत धन कमाया। उसे वहाँ रहते रहते बहुत दिन बीत गए । एक बार उसकी इच्छा अपने देशमें लौट आनेकी हुई। वह अपना सब धन नाव पर लाद कर वहाँसे चला । रास्तेमें एक जगह नाव अटक गई । वह किसी देवीका स्थान था । नावको अटकी देख कर माँझीने कहा-सेठ साहब ! यहाँ एक देवी रहती है। उसने नाव अटका दी है। वह पशुकी बलि चाहती है । महेभ जिनधर्मका भक्त था । अतः वह जीवकी बलि कैसे दे सकता था । उसने नाव चलानेके लिए बहुत प्रयत्न किया, पर वह तिलभर भी अपने स्थानसे नहीं टसी । तब उसने भक्तामर-स्तोत्रका जपना शुरू किया। उसके प्रभावसे उस समुद्राधिवासिनी विकटाक्षी देवीकी सब शक्तियाँ ढीली पड़ गई । देवीने प्रत्यक्ष होकर महेभसे वर माँगनेको कहा । महेभने कहा-मुझे किसी वस्तुकी जरूरत नहीं है; परंतु इतनी तुमसे प्रार्थना है कि आजसे जीवोंकी हिंसा करना छोड़ कर तुम दयाधर्म, स्वीकार करो।