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________________ भक्तामर-कथा। देवीने "एवमस्तु" कह कर महेभको बहुतसे अमोल रत्न दिये, और इसके बाद वह अपने स्थान पर चली गई । महेभ फिर सुखपूर्वक अपने नगरमें लौट आया। उसकी रास्तेकी घटना जिस जिसने सुनी उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। लोगों पर उसका खूब प्रभाव पड़ा । बहुतोंने जिनधर्म स्वीकार किया। . ___ महेभको निर्विघ्न समुद्रयात्रासे लौट आया देख कर लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ । पर इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । कारण जिस स्तोत्रके प्रभावसे अत्यन्त दुस्तर संसार-समुद्र भी जब तैर लिया जाता है तब उसकी तुलनामें इस छोटेसे समुद्रका तैर लेना कौन कठिन है । पर बात यह है-भोले पुरुष अतिशय देख कर ही बहुधा मुग्ध होते हैं । महेभ सुखसे रहने लगा और खूब दान-धर्म करने लगा। उद्भूतभीषणजलोदरभारभुनाः __ शोच्या दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः । त्वत्पादपङ्कजरजोमृतदिग्धदेहा मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ , हिन्दी-पद्यानुवाद। अत्यन्त पीड़ित जलोदर-भारसे हैं है दुर्दशा, तज चुके निजजीविताशा; वे भी लगा तव पदाब्ज-रजासुधाको होते प्रभो! मदन-तुल्य सुरूप देही॥ प्रभो ! जो भयंकर जलोदरके भारसे कुबड़े हो गए हैं, जिनकी अत्यन्त सोचनीय अवस्था हो गई है, और जो अपने जीवनसे सर्वथा निराश हो गए हैं ऐसे मनुष्य भी आपके चरण-कमलोंकी रजःसुधाको अपने शरीर पर लगा कर कामदेवके समान सुन्दर हो जाते हैं।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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