SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ भक्तामर-कथा। विनय करने लगी। सच है, धर्मके प्रभावसे दुर्जन भी . सज्जन हो नाते हैं और सरल-हृदय मनुष्य अपनेसे छोटे और अपराधीका भी विनय ही करता है। धर्मपर निश्चल रहनेके कारण पतिकी अकृपा-पात्र दृढव्रता भी उसकी पूर्ण प्रेमपात्र बन गई। धर्म और जिन भगवानकी स्तुतिके प्रमावसे तो मनुष्य संसारमें पूजा जाने लगता है, तब दृढ़त्रता अपने स्वामीकी प्रेम-पात्र हो गई तो इसमें आश्चर्य क्या ? वल्गत्तुरङ्गगजगर्जितभीमनाद माजी बलं बलवतामपि भूपतीनाम् । उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥ ४२ ॥ कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह वेगावतारतरणातुरयोधभीमे । . युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्त्वत्पादपङ्कजवनायिणो लभन्ते ॥ ४३॥ हिन्दी-पद्यानुवाद । घोड़े जहाँ हिनहिने, गरजे गजाली, ऐसे महा प्रबल सैन्य धराधिपोंकेजाते सभी बिखर हैं तव नाम गाए; ज्यों अन्धकार, उगते रविके करोंसे ॥ बळे लगे, बह रहे गज-रक्तके हैं तालाबसे, विकल हैं तरणार्थ योद्धा, जीते न जायँ रिपु, संगर बीच ऐसे तेरे प्रभो ! चरण-सेवक जीतते हैं ।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy