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.. भक्तामर-कथा।
बढा जा रहा है । मैं तो कभी ऐसी बातें नहीं सह सकती; पर आपके लिहाजसे मुझे अपने देव-गुरु-धर्मकी निन्दा भी सहन करनी पड़ती है।
कर्मणने अपनी नई स्त्रीके बहकानेमें आकर किसी छलसे दृढव्रताको मार डालनेका विचार किया। उसने उसका मन-ही-मन उपाय सोच एक गारुडीको बुला कर उसे खूब धन, दिया और कहा कि एक बहुत ही जहरीला सर्प पकड़ कर मुझे लादे । दवाके लिए उसकी जरूरत है। सर्प मँगा कर कर्मणने उसे अपने सोनेके स्थान पर घड़ेमें बन्द करके रख दिया। ___ रातके समय कर्मणने अपनी दोनों स्त्रियोंके साथ खूब विनोदविलास किया, खूब हँसी-दिल्लगी की और जब सोनेका समय हुआ तब उसने दृढव्रतासे कहा-प्रिये ! हाँ, मैं एक बात तो तुमसे कहना भूल ही गया । आज मैं तुम्हारे लिए एक बहुत ही सुन्दर फूलोंकी माला लाया हूँ । दृढवता यद्यपि अपनी सोतकी सब बातें जानती थी, पर तब भी वह बड़े उमँगके साथ बोली-प्राणनाथ ! बतलाइए वह माला कहाँ रक्खी है ? मैं अभी उसे लाकर पहनूँगी। मुझ अभागिनी पर आपकी आज जो कृपा हुई, उससे मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है। उसका वर्णन तो ब्रह्मा भी नहीं कर सकता। यह कह कर वह अपने स्वामीके मुँहकी ओर बड़ी उत्कण्ठासे देखने लगी।
कर्मणने हाथसे घड़ेकी ओर इशारा करके कहा-देखो, उस घड़ेमें रक्खी है।
दृढ़वता " रक्तेक्षणं-समदकोकिलकण्ठनीलं" इस श्लोकका मंत्र जपती हुई निडर होकर बड़ी जल्दी दौड़ी गई और झटसे घड़ेमसे माला निकाल कर बड़ी खुशीके साथ हँसती हँसती