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________________ दृढव्रताकी कथा। ९९ .. दृढ़त्रताके पिताने कर्मणको एक प्रतिष्ठित धनी देख कर अपनी सुशीला लड़कीका ब्याह उसके साथ कर दिया। नव वधू अपनी सुसराल आई । यहाँ भी वह व्रत-उपवास करने लगी, जिनमन्दिर जाने लगी और जैनशास्त्रोंका स्वाध्याय-मनन-चिन्तवन करने लगी। उसे अपने धर्मके विरुद्ध देख कर उसकी सुसरालके सब लोग उससे द्वेष करने लगे, उसका बात बात पर तिरस्कार-अपमान करने लगे, उसे कुवचन कह कर और उसके सामने जिनधर्मकी निन्दा कर बेहद कष्ट देने लगे । बेचारी दृढव्रताने तब भी उनके विरुद्ध एक अक्षर भी मुँहसे नहीं निकाला । सच है, अधर्मी पुरुष बहुधा करके धर्मात्माओंसे द्वेष ही किया करते हैं। उनका ऐसा स्वभाव ही होता है। इतने पर भी उन पापियोंको सन्तोष नहीं हुआ जो उनने उसके पतिको भड़का कर-उसे भली-बुरी सुझा कर उसका फिर एक ब्याह करवा दिया। दूसरी नव वधू आई । वह उन्हींके धर्मको पालनेवाली मिथ्यात्विनी और बड़ी चालाक थी । सो आते ही उसने जलती आगमें ऊपरसे और घीकी आहुति डालनेका काम किया। वह अपने स्वामीको सदा दृढव्रताके दोष दिखा कर उसकी निन्दा किया करती थी। एक दिन उसने अपने पतिसे कहा-नाथ ! यह बड़ी पापिनी और अभिमानिनी है। देखिए, न तो यह हमारे देव-गुरुओंकी पूजा-भक्ति करती है, और उन्हें देख कर चुपचाप रह जाती हो सो भी नहीं; किन्तु बड़ी बुरी तरह उनकी निन्दा करती है, और नंगे देवों और गुरुओंकी, जिन्हें देख कर ही लज्जा आती है, पूजा करती है, स्तुति-वन्दना करती है । अपमे चंद्रमाके समान निर्मल कुलमें यह बड़ी कुल-कलंकिनी आ गई है । और आप इसे कुछ नहीं कहते, इससे उसका अभिमान और
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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