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भक्तामर - कथा ।
रक्तेक्षणं समदकोकिलकण्ठनीलं क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् । आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्कस्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥ ४१ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद ।
रक्ताक्ष क्रुद्ध पिककंठ - समान काला, फुंकार सर्प फणको कर उच्च धावे । निःशंक हो जन उसे पगसे उलाँघे, त्वन्नाम-नागदमनी जिसके हिये हो ॥
नाथ ! जिस मनुष्यके हृदयमें आपकी नामरूपी नागदमनी - सर्पको निस्तेज करनेवाली औषधि है, वह मनुष्य, लाल लाल आँखें किए हुए, कण्ठ-समान काले, अत्यन्त क्रोधी, और काटने के लिए सन्मुख भी निर्भय होकर पाँवों द्वारा लाँघ जाता है । अर्थात् जिस बड़े बड़े जहरीले सर्प निस्तेज हो जाते हैं उसी भाँति आपका नाम-स्मरण करनेवालेको भी सर्पका बिल्कुल ताकी कथा |
गर्विष्ठ कोकिलाके आते हुए सर्पको भाँति नागदमनी से
पवित्रता और श्रद्धा से भय नहीं रहता ।
इस पद्य मंत्रकी आराधना के फलसे भयंकर सर्प भी एक कोमल फूलकी माला बन जाता है । इसकी कथा इस प्रकार है:
नर्मदापुरमें एक महेभ नामका सेठ रहता था। उसके एक लड़की थी । उसका नाम दृढ़वता था । वह बड़ी सन्दरी और विदुषी थी । जैनधर्म पर उसकी अटल श्रद्धा थी । उसने श्रावकों के व्रत ग्रहण कर रक्खे थे ।
रहता
दशपुर नामका एक और नगर था । उसमें भी एक सेठ था । उसका नाम कर्मण था । उसकी लोकमें बहुत प्रतिष्ठा थी और धन भी उसके पास अटूट था । वह शिवभक्त था ।