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लक्ष्मीधरकी कथा ।
बातमें अग्नि सर्वकषा हो उठी। यह देख उन सबकी जानें मुट्ठीमें आ गई। बेचारे घबरा कर किं-कर्त्तव्यमूढ हो गए । उन्हें कुछ नहीं सूझ पड़ा ।
उन्होंने अपनी रक्षाके लिए बहुत प्रयत्न किया, पर एकमें भी वे सफल नहीं हुए। आखिर वे जीवनकी आशा बिलकुल छोड़ बैठे । इसी समय लक्ष्मीधरको अपने सिद्ध किए मंत्रकी याद आ गई । उसका चेहरा एक साथ आशारूपी जलको पाकर खिल उठा । वह क्षण-मात्र भी विलम्ब न कर भक्तामरके "कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं" इस श्लोकके मंत्रकी आराधना करने लगा। मंत्रके प्रभावसे चक्रेश्वरी एक युवतीके वेशमें वहाँ आई और लक्ष्मीधरको एक जलभरा पात्र देकर वहाँसे चल दी । लक्ष्मीधरने वह जल अग्नि पर छींटा । उसका जल छींटना था कि अग्नि बातकी बातमें शान्त हो गई; जिस भाँति जिन भगवानके वचनामृतसे संसारका प्रबल संताप नष्ट हो जाता है । ___ इसके बाद वे लोग कुशल-पूर्वक उस घोर जंगलसे निकल कर अपने इच्छित स्थान पर पहुँच गए । वहाँ रह कर उन्होंने बहुत धन कमाया और बाद आनन्द-उत्सवके साथ वे सब अपने अपने मकान पर लौट आए । लक्ष्मीधर पहलेहीसे बहुत श्रद्धालु था, पर अपने पर बीती हुई घटनासे उसका श्रद्धान और भी दृढ़ हो गया। अब वह बहुत सुखसे रहने लगा और अपने मंत्रका उपयोग सदा धर्म-प्रभावना तथा संसारके जीवोंका उपकार करनेमें करने लगा-उन्हें पवित्र धर्मके सन्मुख कर उनका मिथ्यात्व नष्ट करने लगा। परोपकारी और दयालु पुरुषोंका कर्तव्य प्रायः दूसरोंके भलेके लिए ही हुआ करता है।
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