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भक्तामर-कथा |
संसार भस्म करने हित पास आवे, त्वत्कीर्तिगान शुभ वारि उसे शमावे ॥
नाथ ! प्रलयकालकी वायुसे बढ़ी हुई अग्निके सदृश, धधकते हुए, उज्ज्वल और जिसमें चिनगारियाँ निकल रही हैं, तथा संसारको भस्म कर देनेके लिए सम्मुख आते हुएकी भाँति जान पड़नेवाले, ऐसे भयंकर दावानलको भी आपका नाम - रूपी जल शान्त कर देता है-बुझा डालता है
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लक्ष्मीधरकी कथा |
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उक्त पद्य मंत्रकी पवित्र भावोंसे आराधना करनेसे दावानल भी जलके रूपमें परिणत हो जाता है । इसकी कथा इस प्रकार है:
पूर्व दिशामें पैठणपुर नामका एक नगर था। उसमें एक लक्ष्मीघर नामका वैश्य रहता था । वह बड़ा धनी था । उसकी धर्म पर बहुत श्रद्धा थी । इसलिए वह सदा भक्तामर स्तोत्रका पाठ किया करता था और मंत्र भी जपा करता था ।
एक दिन वह धन कमानेकी इच्छासे ऊँट तथा बैलों पर खूब धन लाद कर अपने कुछ साथियोंके साथ विदेश गया । सच है, बनियोंकी जाति ही ऐसी है जो पास खूब धनके होने पर भी वह अपने लोभको दबा नहीं सकती ।
ये लोग चलते चलते एक घोर जंगलमें पहुँचे । उनके चारों ओर इतना जंगल था कि मीलों तक उससे बाहर निकलने का पता नहीं पड़ता था। ये उसके बीचमें पहुँचे होंगे कि वायुका प्रचण्ड वेग चला। उसने बढ़ते बढ़ते इतनी भयंकरता धारण की कि इनका वहाँ ठहरना अत्यन्त कठिन हो गया । इतनेमें वृक्षों की परस्पर रगड़ से उसमें आग लग उठी । बेचारोंका एक आपत्तिसे छुटकारा नहीं हुआ कि यह दूसरी बला एक और उनके सिर पर आ खड़ी हुई। अग्निका ला था कि साथ ही हवाने उसे और सहायता दी। फिर क्या था ? बातकी