________________
देवराजकी कथा |
1
`के लिए इस घोर पापको छोड़ कर दया धारण कर । देख, हिंसाका फल बहुत बुरा और नरकमें लेजानेवाला है । वहाँ अनन्त दुःख हैं । इसलिए यदि तुझे दुःखका डर है और सुखी होनेकी तेरी इच्छा है, तो इस पापके छोड़ने के साथ सम्यग्दर्शन ग्रहण कर । उससे तुझे सुख, शान्ति मिलेगी । देवराजके उपदेशका सिंह पर बहुत प्रभाव पड़ा । उसने हिंसा छोड़ कर दयाधर्म स्वीकार कर लिया ।
९५
इसके बाद देवराज और उसके साथी उस वनसे निकल संकेतपुर पहुँचे । वहाँ बहुत धन कमा कर वे बड़े आनन्दके साथ पीछे अपने नगरमें लौट आए। रास्तेकी घटनासे देवराजकी श्रीपुरमें बहुत मान्यता हो गई | अबसे सारे नगरके सेठ - साहूकारों में वही प्रधान गिना जाने लगा । राजसभामें भी उसका खूब सत्कार होने लगा । सच है, पुण्य से धन-दौलत भी प्राप्त होती है और सन्मान भी होने लगता है ।
इसके बाद देवराजने अपने नगरमें बड़े बड़े विशल जिनमन्दिर बनवाए, उनकी प्रतिष्ठा करवाई, विद्यालय खुलवाए, और गरीबों की सहायता की । इससे उसका नाम खूब प्रसिद्ध हो गया और वह संघाधिपति कहलाने लगा ।
कल्पान्तकालपवनोद्धृतवह्निकल्पं
दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुः स्फुलिङ्गम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥ ४० ॥
हिन्दी - पद्यानुवाद |
झालें उठें, चहुँ उड़ें जलते अँगारे, दावाग्नि जो प्रलय वह्नि समान भासे;