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भक्तामर-कथा।
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श्रीपुर नामका एक अच्छा समृद्धिशाली नगर था । उसमें देवराज 'नामका एक सेठ रहता था। उसने विद्वानोंके चूडामणि, अपने वीर
चंद्र गुरुके पास विधि-पूर्वक भक्तामर स्तोत्र और उसकी साधनविधिका अभ्यास किया था।
एक दिन देवराज व्यापारकी इच्छासे कुछ लोगोंके साथ संकेतपुर गया। रास्तेमें एक जंगलमें दिन अस्त हो गया। वह जंगल बड़ा भयंकर और हिंस्र जीवोंसे भरा हुआ था । वे लोग उसमें ठहर तो गए, पर उन भयंकर जीवोंके मारे उनके होश ढीले पड़ गए । इतनमें उनके सिर पर एक और विपत्ति आकर उपस्थित हो गई । एक बड़ा भारी भयंकर सिंह अपनी विकट गर्जनासे हाथियोंके हृदयोंको हिलाता हुआ और उनके विदीर्ण कपोलोंसे बहते हुए खूनसे लथ-पथ भरा हुआ उन पर झपटा। उसे देख कर देवराजके सब साथी अधमरेकी भाँति हो गये और चीख मार कर वे देवराजके पीछे आ खड़े हुए। उस बेचारेको उन्होंने सिंहके सामने कर दिया । सच है, मृत्यु सबके लिए असह्य होती है। ___ अपने सामने कालको मुहँ बाए हुए आया देख कर देवराज भी बहुत घबरा उठा, पर उस समय उसे अपने गुरुका सिखाया हुआ मंत्र और उसकी आराधना करनेकी बात याद हो उठी । उसने उसी समय “ भिन्नेभकुंभगलदुज्ज्वलशोणिताक्त-" इस श्लोकके मंत्रकी आराधना करके मंत्र-प्रभावसे सिंहको अपने वश कर लिया; जिस भाँति योगिराज प्रचण्ड कामको अपने वश कर लेते हैं । इसके बाद सिंहको विनयसे मस्तक झुकाए, और नखोंसे गिरे हुए सुन्दर मोतियोंसे मानों पूजन करते देख कर देवराजने उससे कहा-भव्य ! तुझे जीवोकी हिंसा करते बहुत समय हो गया, अब तो अपने कल्या