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भक्तामर-कथा।
बात न थी। जिस दिनसे राजपुत्रीने सोमराजको देखा उसी दिनसे उसकी हालत बहुत ही बिगड़ चली । उसने खाना-पीना छोड़ दिया। उसका मन किसी प्रकारके विनोदमें न लगता था और न भूषण वस्त्रोंके पहरनेमें लगता था। यह देख कर राजाको बड़ी चिन्ता हुई । उसने वैद्यों, मांत्रिकों और तांत्रिकों द्वारा उसका बहुत कुछ इलाज करवाया, पर उसे किसीसे आराम नहीं पहुँचा। सच है, जिनके -मनको काम अधीर बना डालता है उन्हें तब तक चैन नहीं पड़ता जब तक कि उन्हें अपनी प्यारी वस्तु प्राप्त न हो-वही उनके कठिन काम-रोगकी औषधि है। ___ सब तरहसे निराश होकर राजाने फिर नगरमें मनादी पिटबाई कि ... जो मेरी कन्याको आराम कर देगा उसे अपने राज्यका चतुर्थांश दूंगा
और उसके साथ अपनी पुत्रीको भी विवाह दूंगा।" मनादी सुन कर सोमराज उसी समय राजमहल पहुँचा । राजकुमारीको काम बाणोंसे जर्जरित समझ उसने झूठ-मूठ ही मंत्रके बहाने एक साथिया लिख कर उस पर उसे बैठा दिया और मंत्रे हुए उड़द खिलाने लगा। इसके सिवाय मंत्र सुनानेके बहाने सोमराजने राजकुमारीके कानमें कुछ संकेत भी किया। संकेतको सुनते ही राजकुमारी झटसे सावधान होकर उसी भाँति उठ बैठी, जिस भाँति सर्पका काटा हुआ मंत्रके बलसे जहर उतर जाने पर सचेत हो उठ बैठता है । यह देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसी समय उसने कुमारीका ब्याह सोमराजके साथ करके अपने बचनोंके अनुसार उसे राज्य भी दे दिया ।
देखिए, कहाँ तो सोमराजकी दरिद्र दशा ! कहाँ विदेशमें घूमते फिरना और कहाँ भाग्योदयसे राज्य-वैभवका प्राप्त होना! पर बात