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उतने ही परमाणु कदाचित्, निखिल विश्व में थे रमणीय । इसीलिये तुम-सम मन-मोहन, रूप नहीं दिखता श्रीमान् ॥१२॥ सुर-नर • मोहन ललित वदन तव, देख भला क्या जाय कहा ? सचमुच प्रभु ! इस जगतीतल पर, इक उपमान न शेष रहा ।। चन्द्रबिम्ब की उपमा दें तो वह भी नहीं कलंक-विहीन । दिन में पीत-पलास-पत्र सम, दिखता जो छतिहीन महान ॥१३॥ चन्द्रकिरण सम तव उज्ज्वल गुण, व्याप रहे हैं त्रिभुवन में । विश्वेश्वर ! इससे न तनिक भी, अचरज होता है मन में ॥ क्योंकि जिन्होंने लिया सहारा, जगन्मान्य जगदीश्वर का । भला उन्हें फिर रोक सकेगा, कौन स्वछन्द विचरने में ॥१४॥ सुर-बालाएँ तुम्हें दिखाकर, हावभाव, मय यदि लावण्य । कर न सकी तव विमल चित्त में, रंचक विकृति काममल-जन्य ।। इसमें भी अचरज क्या? जैसे, प्रलय-पवन से क्षुद्र अचल । उड़ जाते हैं, किन्तु कभी क्या-हिलता मंदराद्रिका शृङ्ग ॥१५॥ जिसमें रंच न तैल न बत्ती, और धूम का लेश रहा । निखिल विश्व जिसकी आभा में, जगमग जगमग दमक रहा ॥ गिरि के शिखर उड़ाने वाला, वायु बुझा सकता न जिसे। जग में यों अनुपम दीपक है, तू ही जगदाधार ! अहा ॥१६॥ तीन भुवन को प्रगटाता है, युगपत जिसका ज्ञान प्रखर । अस्त न होता कभी, न जिसको, ग्रस पाता राहू पल भर ॥ कभी सघन घन रोक न पाते, जिसका विमल प्रताप महान् । ज्योतिपुञ्ज ! यों रवि से बढ़कर, है तू दिव्य प्रभा का घर ॥१७॥ मोह महातम का क्षय-कारक, अमित प्रभाधारक अभिराम । रहता नित्य उदित, जिसकी छवि, रंच न ढक सकते घनश्याम ॥