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________________ (५८) पंचम स्वर से मञ्जुल लय में, मोहित हो मजरियों पर । ज्यों कोयलियां कूका करतीं, आ जाने पर प्रिय मधुमास ॥६॥ भक्तिभाव से तव गुण-गरिमा, जो जन मन में गाते हैं। भगवन् ! उनके चिर-संचित अघ, क्षण में ही क्षय जाते हैं। जैसे छाये हुए निशा में, अलि-सम नील तिमिर घनघोर । प्रातः रवि की उग्र किरण से, पल में लय हो जाते हैं ॥७॥ मान यही मैं मन्दमति करूँ, तव स्तवन प्रारम्भ निदान । सुजनवृन्द प्रमुदित होंगे ही, तव प्रभाव से अय भगवान् । रम्य कमलिनी दल पर पड़ कर, यथा सलिल के बिन्दु प्रभो ! मुक्ताफल सम झिलमिल अनुपम, धुति पाते सुन्दर अम्लान ॥८॥ महामहिम ! तव वर गुणस्तवन, का करना तो दूर रहा । करती है तव पुण्य कथा ही, जगती के अघ चूर अहा! ज्यों दिनकर की प्रभा मात्र से, कमल मुदित हो जाते हैं। अन्तरिक्ष में यदपि सरों से, रहता है वह दूर महा ।।६।। त्रिभुवन-तिलक ! तव स्तुति कर जो मानव पुण्य कमाते हैं। क्या अचरज, यदि समयान्तर में, वे तुम सम बन जाते हैं ? उन स्वार्थांध स्वामियों से क्या, जो समृद्ध हैं सभी प्रकार, किन्तु कभी निज आश्रित जनको, निज सम नहीं बनाते हैं ॥१०॥ इकटक दर्शनीय सुन्दर छबि, देख तुम्हारी अय भगवन् ! पाते रंच न तोष कहीं फिर, भव्य जनों के युगल नयन ॥ चन्द्र किरण सम, शुचि सुमधुरतम, क्षीरसिंधु का कर जलपान । पीना चाहेगा जगती पर-खारा पानी कौन सुजान ॥११॥ मूर्तिमान सौन्दर्य ! तुम्हारे, इस सुन्दर तनु का निर्माण । जिन २ दिव्य रुचिर अणुओं के, द्वारा हुआ वृषभ भगवान !
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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