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(५७) भक्तामर स्तोत्र
[ श्री पं० नाथूराम डोंगरीय ] भक्त-सुरों के नत-मुकुटों की, मणियों को की कांति प्रदान । युगारम्भ में किया जिन्होंने, निविड़ पाप-तम का अवसान ।। भली भाँति उन प्रभु चरणों में, नमस्कार कर बारम्बार । भव सागर में मग्न जनों का, किया जिन्होंने अभ्युत्थान ।। १ ॥ द्वादशांग के दिव्य ज्ञान से विमल बुद्धि पाकर अभिराम। . की सुरेन्द्र ने जिसकी अनुपम, जग-जन-मोहन भक्ति ललाम ।। उस आदीश्वर प्रथम तीर्थंकर, शर्म शिवंकर की मैं भी। अभिवादन कर अहा ! भक्तिवश, यह स्तुति करता अविराम ॥२॥ ज्यों जल में प्रतिबिम्ब चन्द्र का, देख चाव से शिशु बुधिहीन । सहसा लालायित हो जाता, किन्तु चाहता कौन प्रवीण ? त्यों देवेन्द्र-पूज्य-पद विभुवर ! कहां अचिन्त्य गुणाकर आप।
और कहाँ मैं स्तुति करने की करूं धृष्टता इह ! मतिहीन ॥३॥ गुण-समुद्र ! तव विपुल प्रभामय चन्द्र-तुल्य गुणरत्न अनंत । सुरगुरु सम भी कौन विज्ञ है, वर्णन कर जो पावे अन्त ? भला प्रलय के प्रबल पवन से, क्षोभित, मगर मच्छ परिपूर्ण- । अगम सिन्धु केवल भुजबल से, तर सकता है कौन महन्त ॥४॥ हूं मैं शक्ति-विहीन मुनीश्वर ! तो भी भक्ति-भरा यह मन । ... देव ! कर रहा विवश तुम्हारा, करने स्तवन जगन्मोहन ! तुम्हीं कहो जब मृग-शावक पर, सिंह आक्रमण करता है। 'शिशु-विमुग्ध तब शक्तिहीन मृग, क्या न प्रभो ! करता है रण ॥५॥ स्वल्प - शास्त्र का ज्ञाता हूँ मैं, विज्ञ करेंगे मम परिहास । तदपि भक्ति वाचाल कर रहो, मन में भर भर कर उल्लास ॥