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बळे लगे बह रहे गज-रक्त के हैं, ..... - तालाब से, विकल हैं तरणार्थ योद्धा । जीते न जायँ रिपु, संगर बीच ऐसे, . .. तेरे प्रभो, चरण-सेवक जीतते हैं ॥४३॥ हैं काल-नृत्य करते मरादि जन्तु,
त्यों बाड़वाग्नि अति भोषण सिन्धु में है । तूफान में पड़ गये जिनके जहाज,
__ वे भी प्रभो स्मरण से तव, पार होते ॥४४॥ अत्यन्त पीड़ित जलोदर-भार से हैं,
है दुर्दशा, तज चुके निज-जीविताशा।। वे भी लगा तव पदाब्ज-रजः सुधाको,
होते, प्रभो, मदन-तुल्य. सुरूप-देही ॥४५॥ सारा शरीर जकड़ा दृढ़ सांकलों से,
बेड़ी पड़ें, छिल गईं जिनकी सुजाँचें । त्वन्नाम-मन्त्र जपते-जपते उन्हों के,
- जल्दी स्वयं झर पड़े सब बन्ध-बेड़ी ॥४५॥ जो बुद्धिमान् इस सुस्तव को पढ़ें हैं,
होके विभीत उनसे भय भाग जाता। दावाग्नि-सिन्धु-अहिका, रण-रोगका, त्यों,
पंचास्य, मत्तं गजका, सब बन्धनोंका ॥४७॥ तेरे मनोज्ञ गुण से स्तव-मालिका ये,
गूंथी, प्रभो, विविधवर्ण सुपुष्पवाली। मैंने सभक्ति, जनकंठ धरे इसे जो, ' सो 'मानतुङ्ग' सम प्राप्त करे सुलक्ष्मी ॥४८॥
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