SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५५) तेरी विभूति इस भाँति, विभो, हुई जो, ".. सो धर्म के कथन में न हुई किसी की। होते प्रकाशित, परन्तु तमिस्र-हर्ता, होता न तेज.रवि-तुल्य कहीं ग्रहों का ॥३७॥ दोनों कपोल झरते मद से सने हैं, गुजार खूब करती मधुपावली है। ऐसा प्रमत्त गज होकर क्रुद्ध आवे, पावें न किन्तु भय, आश्रित लोक तेरे ॥३८॥ नाना करीन्द्र-दल-कुम्भ विदारके, की, . पृथ्वी सुरम्य जिसने गज-मोतियों से । ऐसा मृगेन्द्र तक चोट करे न उसपे, तेरे पदाद्रि जिसका शुभ आसरा है ॥३९॥ झालें उठ चहुं उड़ें जलते अंगारे, दावाग्नि जो प्रलय-वह्नि समान भासे । ससार भस्म करने-हित पास आवे, त्वत्कीर्ति-गान शुभ-वारि उसे शमावे ॥४०॥ रक्ताक्ष क्रुद्ध पिक-कंठ समान काला, फंकार सर्प फणको कर उच्च धावे । निःशंक हो. जन उसे पग से उलांघे. त्वन्नाम नाग-दमनी जिसके हिये हो ॥४॥ घोड़े जहां हिनहिने, गरजे गजाली, ऐसे महाप्रबल सैन्य धराधिपों के। जाते सभी बिखर हैं तव' नाम गाये, ज्यों अन्धकार, उगते रवि के करों से ॥४२॥
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy