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(५४) मोती मनोहर लगे जिनमें, सुहाते,
नीके हिमांशु-सम सूरज-ताप-हारी। हैं तीन छत्र शिरपै अति रम्य तेरे,
' जो तीन लोक परमेश्वरता बताते ॥३१॥ गम्भीर नाद भरता दश ही दिशा में,
सत्संगकी त्रिजगको महिमा बताता। . धर्मेशकी कर रहा जय-घोषणा है,
आकाश बीच बजता यशका नगारा ॥३२॥ गन्धोद-बिन्दु-युत मारुत की गिराई,
मन्दारकादि तरुकी कुसुमावली की । " होती मनोरम महा सुरलोक से है, .
. वर्षा मनो तव लसे वचनावली है ॥३३॥ त्रैलोक्यकी सब प्रभामय वस्तु जीती,
भामण्डल प्रबल है तव, नाथ, ऐसा। नाना प्रचण्ड रवि-तुल्य सुदीप्ति-धारी,
है जीतता शशि सुशोभित रातको भी॥३४॥ है स्वर्ग-मोक्ष-पथ-दर्शनका सुनेता,
सद्धर्मके कथनमें पटु है जगोंके । दिव्यध्वनि प्रकट अर्थमयी, प्रभो है,
तेरी, लहें सकल मानव बोध जिससे ॥३५॥ फूले हुए कनकके नव पद्मके-से, .
शोभायमान नखकी किरण-प्रभा से । तूने जहाँ पग धरे अपने, विभो, हैं,
नीके वहाँ विबुध पङ्कज कल्पते हैं ॥३६॥