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(५३) तू बुद्ध है विबुध-पूजित-बुद्धिवाला,
कल्याण-कर्तृवर शंकर भी तुही है। तू मोक्ष-मार्ग-विधि-कारक है विधाता,
. . है व्यक्त नाथ, पुरुषोत्तम भी तुही है ॥२५॥ त्रैलोक्य-आति-हर नाथ, तुझे नमूं मैं, .
___ हे भूमि के विमल' रत्न, तुझे नमूं मैं । हे ईश सर्व जग के, तुझको नमूं मैं, .... ..
मेरे भवोदधि-विनाशि, तुझे नमूं मैं ॥२६।। आश्चर्य क्या गुण सभी तुझमें समाये, ....
____ अन्यत्र क्योंकि न मिली उनको जगा ही। देखा न नाथ, मुख भी तव स्वप्न में भी,
- पा भासरा जगत का सब दोष ने तो ॥२७॥ नीचे अशोक तरुके तन है सुहाता, ... तेरा विभो, विमल रूप प्रकाश-कर्ता । फैली हुई किरणका, तमका विनाशी,
मानो समीप घनके रविबिम्ब ही है ॥२८॥ सिंहासन-स्फटिक रत्न-जड़ा उसी में,
. भाता, विभो, कनक-कान्त शरीर तेरा। ज्यों रत्न-पूर्ण उदयाचल शीश पै जा,
फैला स्वकीय किरणें रवि-विम्ब सोहे ॥२६॥ तेरा सुवर्ण-सम देह, विभो, सुहाता,
है, श्वेत कुन्द-सम चामर के उड़े से । सोहे सु मेरुगिरि, कांचन कान्तिधारी,
ज्यों चन्द्रकांति, धर निर्भरके बहेसे ॥३०॥