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________________ ( ५२ ) क्या भानु से दिवस में, निशि में शशी से, तेरे, प्रभो, सुमुख से तम नाश होते ? अच्छी तरह पक गया जग-बीच धान, है काम क्या जल-भरे इन बादलों से || १६ ॥ जो ज्ञान निर्मल, विभो, तुझ में सुहाता, भाता नहीं वह कभी पर देवता में । होती मनोहर छटा मणि-मध्य जो है, सो काच में नहि, पड़े रवि-बिम्ब के भी ॥ २० ॥ देखे भले, अयि विभो, पर देवता ही; देखे जिन्हें हृदय आ तुझमें रमे ये । तेरे विलोकन किये फल क्या प्रभो, जो कोई रमे न मन में पर जन्म में भी ॥ २१ ॥ माएं अनेक जनतीं जग में सुतों को, हैं किन्तु वे न तुझ-से सुतकी प्रसूता । सारी दिशा धर रहीं रवि का उजेला, पै एक पूरव - दिशा रवि को उगाती ॥ २२ ॥ योगी तुझे, परम- पूरुष हैं बताते, आदित्य-वर्ण मलहीन तमिस्र - हारी । पाके तुझे जय करें सब मौत को भी, है और ईश्वर नहीं वर मोक्ष मार्ग ||२३|| योगीश अव्यय, अचिन्त्य, अनङ्गकेतु, ब्रह्मा असंख्य परमेश्वर, एक, नाना ज्ञान- स्वरूप, विभु, निर्मल, योगवेत्ता, त्यों आद्य, सन्त तुझको कहते अनन्त ||२४||
SR No.002453
Book TitleBhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherShastra Swadhya Mala
Publication Year1974
Total Pages152
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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