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(६०) नीच राहु से भी अगम्य है, जो प्रकाश का उज्ज्वल स्रात । विश्व-प्रकाशक वदन कमल तव, है अपूर्व ही चन्द्र ललाम ।।१८॥ जबकि देश में वन्य शालि के, खेत पक चुके हों चहुँ ओर । तब होता है व्यर्थ गगन में, घन का घोर मचाना शोर ।। त्यों ही दिन में दिनकर, निशिमें शशिका भी क्या काम ? अहा । तव मुखेन्दु जब नष्ट कर चुका, जगका मोह महातम घोर ।।१६।। विश्व-तत्व-ज्ञायक ! तुम में ज्यों, दिपता सम्यग्ज्ञान अनन्तउसकी आभा का शतांश भी, पा न सके सब सन्त महन्त ।। सच है-सूर्यकांत मणि. में ज्यों, कांति मनोरम दिपती है - पा सकता क्या काचखंड त्यों, होकर रवि-करसे द्युतिमन्त ॥२०॥ रूप देखना हरि हरादि के, मैं उत्तम समझा भगवान् ! क्योंकि उन्हे लख मन में तुम पर, हो जाता है तोष महान् ।। किन्तु प्रभो ! तव दर्शन से क्या, विविध देवताभासों कोइस भव क्या, परभवमें भी नहि, चित हरना रहता आसान ॥२१॥ यदपि, अवनितल पर महिलाएँ, शत शत बालक जनतीं हैं। किन्तु आप सम अनुपम हीरक, जननि न सब जन सकती हैं । यथा निशा में सर्व दिशायें, धारण करतीं तारक दल । पर प्रभात में विमल प्रभाकर, प्राची दिश ही जनती है ॥२२॥ तमहर, सूर्यसमप्रभ, निर्मल, पुरुषोत्तम इत्यादि अनन्त । नामों से आराधन करते, भगवन् ! तव सब सन्त महन्त ।। बिना तुम्हारे मुक्तिमार्ग भी अन्य नहीं सुखकर जगदीश ! योगि जिसे पा मृत्युञ्जय बन, हो जाते हैं शिव-तिय-कन्त ।।२३॥ अक्षय, अमल, असंख्य, योगविद्, आद्यब्रह्म कोई कह कर। कोई घट-घट-व्यापक, या फिर, कोई ईश्वर, योगीश्वर ।।