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(१४) प्राषि-व्याषि-नाशक लक्ष्मी-प्रदायक सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला कलाप
शुभा गुणास्त्रिभुवनं तव लङ्घयन्ति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं, - कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
पूरन चंद जोति छबिवंत, तुम गुन तीन जगत लंघेत । एक नाथ त्रिभुवन प्राधार, तिन विचरत को कर निवार॥
अर्थ-हे भगवन् ! पूर्ण चन्द्र समान उज्ज्वल आपके गुण तीन लोकों को भी लाँघ गये हैं। सो ठीक ही है, जो एक त्रिलोकीनाथ के ही आश्रय रहें उनको यथेच्छ विहार करते हुए कौन रोक सकता है ? (कोई नहीं) ॥१४॥
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो विपुल मदीणं ।
मंत्र-ॐ नमो भगवती गुणवती महामानसी स्वाहा ।
Thy virtues, which are bright like the collection of digits of full-moon, bestride the three worlds. Who can resist them while moving at will, having taken rosort to that supreme Lord Who is the sole overlord of all the three worlds. 14.