________________
( १५ . )
राजसम्मान - सौभाग्यवर्धक चित्र किमत्र यदि ते विदशांगनाभि
नीतं मनागपि मनो न विकार - मार्गम् ।
कल्पान्त-काल- मरुता चलिता-चलेन
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् |१५| तिय
जो सुरक्षित विभ्रम श्रारम्भ, मन न डिग्यो तुम तो न अचम्भ । चल चलावे प्रलय समीर, मेरु शिखर डगमगे न धीर ॥
अर्थ - प्रभो ! इसमें क्या आश्चर्य की बात है कि सुन्दरी देवाजनाओं का हाव भाव देख कर भी आपका मन जरा भी विकृत नहीं हुआ । क्योंकि प्रलयकाल की जिस प्रबल वायु से अन्य पर्वत चल विचल हो जाते हैं उस वायु से क्या कभी मन्दराचल (सुमेरु पर्वत) का शिखर भी चलायमान होता है ? ( कभी नहीं ) ॥ १५ ॥
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो दस पुव्वीणं ।
मंत्र — ॐ नमो भगवती गुणवती सुसीमा पृथ्वी वज्र-शृङ्खला मानसी महामानसी स्वाहा ।
No wonder that Your mind was not in the least perturbed even by the celestial damsels. Is the peak of Mandaramountain ever shaken by the mountain shaking winds of Doomsday? 15.