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चोर भय व अन्यभय निवारक वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरगनेत्र-हारि,
निःशेष-निजित-जगत्त्रित-योपमानम् । बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य, ... यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम् ॥१३॥ कहं तुम मुख अनुपम अविकार, सुरनरनागनयनमनहार । कहां चन्द्र-मण्डल सकलंक, दिन में ढाक पत्र सम रंक ॥ ___ अर्थ हे भगवन् ! सुर नर असुर के नेत्रों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले, समस्त जगत में अनुपम, आपके मुख-मण्डल की बराबरी चन्द्रमा कहाँ कर सकता है जिसमें कि काला लांछन लगा हुआ है तथा जो दिन के समय ढाक के पत्ते की तरह कान्तिहीन हो जाता है ॥१३॥
ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो ऋजुमदीणं।
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं हं सः ह्रौं ह्रां द्रां द्रीं द्रौं द्र: मोहिनी सर्व जन वश्यं कुरु कुरु स्वाहा।
Where is Thy face which attracts the eyes of gods, men, and divine serpents and which has thoroughly surpassed all the standards of comparison in all the three worlds. That spotted moon-disc which by the day time becomes pale and lustreless like the white, dry leaf, stands no comparison ! 13.